रुद्राष्टकम्: संपूर्ण विवरण और अर्थ

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रुद्राष्टकम् भगवान शिव की स्तुति में रचित एक प्रसिद्ध स्तोत्र है। यह स्तोत्र भगवान राम के अनन्य भक्त गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखा गया है। रुद्राष्टकम् में भगवान शिव के अद्वितीय स्वरूप, महिमा और कृपा का वर्णन किया गया है। आइए इस अद्भुत स्तोत्र के प्रत्येक श्लोक का अर्थ और महत्ता समझते हैं।

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं
विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम्।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं
चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम्॥

अर्थ: मैं उन ईश्वर को प्रणाम करता हूँ जो निर्वाण स्वरूप, सबके स्वामी, व्यापक, ब्रह्म और वेदों के स्वरूप हैं। जो स्वयं में स्थिर, निर्गुण, विकल्पहीन, इच्छा रहित और चिदाकाश (शुद्ध चेतना) रूप हैं तथा आकाश में निवास करते हैं।

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं
गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम्।
करालं महाकाल कालं कृपालं
गुणागार संसारपारं नतोऽहम्॥

अर्थ: जो निराकार, ओंकार के मूल, तुरीय (चौथे अवस्था) हैं। जो वाणी और ज्ञान से परे, ईश्वरीय और पर्वतों के ईश्वर हैं। जो भयावह, महाकाल, काल के भी काल और कृपालु हैं। जो गुणों के भंडार और संसार के पार हैं, मैं उन्हें नमन करता हूँ।

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं
मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरम्।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा
लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा॥

अर्थ: जो हिमालय के समान गौरवर्ण, गंभीर और करोड़ों कामदेवों की शोभा से युक्त हैं। जिनके मस्तक पर कल-कल करती सुंदर गंगा, मस्तक पर चमकता हुआ चंद्रमा और गले में सर्प शोभायमान हैं।

चलत्कुण्डलं भ्रू-सुनेत्रं विशालं
प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं ।
मृगाधीश चर्माम्बरं मुण्डमालं
प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि॥

अर्थ: जिनके कानों में झूमते कुंडल, सुंदर नेत्र, विशाल स्वरूप, प्रसन्न मुख, नीला कंठ और दयालु स्वभाव हैं। जो मृगचर्म धारण किए हुए हैं, मुंडमाल से सुशोभित हैं, प्रिय शंकर और सबके स्वामी हैं, मैं उनकी आराधना करता हूँ।

प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं
अखण्डं अजं भानुकोटि प्रकाशम्।
त्रय: शूल निर्मूलनं शूलपाणिं
भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम्॥

अर्थ: जो प्रचंड, उत्कृष्ट, प्रबल, परमेश्वर, अखंड, अजन्मा और करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशवान हैं। जो त्रिशूल धारण करने वाले, समस्त दुखों का नाश करने वाले, भवानीपति और भाव से समझे जाने वाले हैं, मैं उनकी भक्ति करता हूँ।

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी
सदा सच्चिनान्द दाता पुरारी।
चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी
प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी॥

अर्थ: जो काल से परे, कल्याणकारी, कल्पांत को लाने वाले, सदा सत्य-चेतन-आनंद के दाता, पुरारी (त्रिपुरासुर का संहार करने वाले), चिदानंद के स्वरूप और मोह को नष्ट करने वाले हैं। हे मन्मथ (कामदेव) के शत्रु, मुझ पर प्रसन्न होइए।

न यावद् उमानाथ पादारविन्दं
भजन्तीह लोके परे वा नराणाम्।
न तावत्सुखं शांति सन्तापनाशं
प्रसीद प्रभो सर्व भूताधिवासं॥

अर्थ: जब तक मनुष्य हे उमानाथ, आपके चरणकमलों की भक्ति नहीं करते, तब तक उन्हें इस लोक में या परलोक में न सुख, न शांति, न संताप का नाश मिलता है। हे सर्वभूतों के वासी प्रभु, मुझ पर कृपा कीजिए।

न जानामि योगं जपं नैव पूजां
नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम्।
जराजन्म दुःखौघ तातप्यमानं
प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो॥

अर्थ: मैं न योग जानता हूँ, न जप, न ही पूजा। मैं सदा सर्वदा आपके ही समर्पित हूँ। जन्म और जरा (बुढ़ापा) के दुखों से पीड़ित हूँ। हे प्रभु शंभु, मेरी रक्षा कीजिए। मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

रूद्राष्टकं इदं प्रोक्तं विप्रेण हर्षोतये
ये पठन्ति नरा भक्तयां तेषां शंभो प्रसीदति।।

अर्थ: जो भी मनुष्य इस स्तोत्र को भक्तिपूर्वक पढ़ते हैं, उन पर भोलेनाथ विशेष रूप से प्रसन्न होते हैं।

रुद्राष्टकम् भगवान शिव की महिमा और उनकी दिव्यता का सुंदर वर्णन है। इस स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति के मन में शांति, भक्ति और भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है। यह स्तोत्र न केवल भगवान शिव की स्तुति करता है बल्कि उनके विभिन्न गुणों और स्वरूपों का भी वर्णन करता है, जो शिव भक्तों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। नियमित रूप से रुद्राष्टकम् का पाठ करने से भक्त की समस्त इच्छाएं पूर्ण होती हैं और उसे आत्मिक शांति की प्राप्ति होती है।


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